कितना आसान है न....
गैरों की बेटियों का वजूद तय कर जाना …
नज़रिए के तराजू को अपमान से भरकर…
उसके तन और मन को एक साथ तोल जाना …
कितना आसान है न…..
अपने मन की कालिक स उसके हलके सावले रंग को काला स्याह कर जाना…
अपनी ओछी सी सोच से उसका कद कभी छोटा कभी बड़ा और वजन को कम ज्यादा कर जाना…
कितना आसन है न...
हौसले से भरी चाल चले …
तो चाल चलन काअंदाज़ा लगाना …
अगर खामोश चुप सी रहे तो गूंगी गवांर का ताना दे जाना…
कितना आसान है न …..
जाने किस पैमाने पर नापते है …
बाजार की गुड़िया और आँगन की बिटिया मैं फ़र्क क्यू नही समझ पाते हैं लोग.....
क्यू नही समझ पाते बेटियाँ सब की एक जैसी होती हैं..
किसी की 'खूबसूरत' भी होती हैं...
किसी की सिर्फ़ 'खूबसीरत'ही होती हैं.......
इंदु रिंकी वर्मा
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