चाल हम पर एक भी, दुश्मन की चल पाई नहीं.
कोई भी ताक़त इरादों को बदल पाई नहीं.
मौत भी थर्रा उठी, दीवानगी को देख कर,
गोलियां सीने पे झेलीं , पीठ पर खायीं नहीं.
है नहीं परवाह हमें, जीत की या हार की.
हम नहीं जिए हैं कभी जिन्दगी उधार की.
नहीं जिए, नहीं जिए, नहीं जिए हैं हार की,
हम नहीं जिए हैं कभी, जिंदगी उधार की.
निकल पड़े, निकल पड़े, बना-बना के टोलियाँ.
भले ही सिर कटे या हमें, भून डालें गोलियाँ.
खेली वतन के वास्ते, हमने लहू की होलियाँ,
वीरों ने रंगे कुरते, बालाओं ने रंगी चोलियाँ.
जिए जरा सी जिन्दगी, पर मौसमे-बहार की.
हम नहीं जिए हैं कभी जिंदगी उधार की.
बढ़ा दिए कदम जो एक बार वो बढ़ा दिए।
चढ़ा दिए जो शीश मात्र भूमि पर चढ़ा दिए.
कुचल गए हजारों जिस्म दुश्मनों के टैंक से,
रहे जो प्राण शेष वक्ष उठ के फिर अडा दिए।
एक बार की न ये, कहानी बार-बार की।
हम नहीं जिए हैं कभी, जिन्दगी उधार की।
कितनों को उम्रकैद तो कितनों को मिली फांसियां।
कितने वतन पे मिट गए कितनों का जला आशियाँ।
धरती बनी थी सूचि शहीदों के अमर नाम की,
उस पर भी जरा सा कहीं बाकी न बचा हाशिया।
मचलती यहाँ हसरतें, दिलों में इक गुबार सी।
हम नहीं जिए हैं कभी, जिन्दगी उधार की।
बातों से नहीं, कर्म से दोहराते हैं कहानियाँ।
वतन पे अपने हम सदा, लुटाते हैं जवानियाँ.
जन्म ही लेते हैं हम कुर्बान होने के लिए।
हर युग में छोड़ जाते हैं हम एक सी निशानियाँ।
सह नहीं सकते हैं हम, गुलामी अंधकार की।
हम नहीं जिए हैं कभी जिन्दगी उधार की।
कहीं पे शांति दूत हम, कहीं पे दूत काल के।
माँ के गले में जो पड़ी, मोती हैं उसी माल के।
फौलाद सा है जिस्म पर ह्रदय हमारा मोम है।
हिन्दू मुसलमाँ सिख, नहीं इंसानियत ही कौम है।
बोलियाँ अनेक पर जुबान एक प्यार की।
हम नहीं जिए हैं कभी, जिन्दगी उधार की।
भाषाएँ अलग हैं धर्म-जातियां अनेक हैं।
दीप एक है उसी की बातियाँ अनेक हैं।
तरह-तरह के फूल डाल-डाल पर बिखर रहे,
बाटिका है एक उसकी पांतियाँ अनेक हैं।
अनेकता बनी है लड़ी एकता के हार की।
हम नहीं जिए हैं कभी जिन्दगी उधार की।
जय भारत! जय भारती! !
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