एक ग्रामीण बालक,
होटों तक बहती नाक को,
आस्तीन से पोंछता हुआ,
फटे, मैल से चीकट कुरते को,
पेट तक खींचता हुआ,
लघुशंकित हो रहा है।
उसकी मटमैली धार से,
धरा की छाती पर,
देश का वर्तमान,
अंकित हो रहा है।
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रोटी:
कचरे के ढेर को,
पंजे और नन्हीं उंगलिओं से कुरेदते,
मुर्गी और इंसान के चूजे में,
मुझे,
कोई अंतर दिखाई नहीं देता।
दोनों की तलाश जारी है।
एक को चाहिए,
मैल और गंदगी की तह में छुपे,
कुलबुलाते कीट,
तो दूसरे को,
रद्दी कागज और,
कांच के टुकड़ों के बीच छुपी,
सिर्फ एक वक्त की रोटी।
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छोटे-बड़े का अंतर:
छोटा मदारी,
लोहे की कीलें निगलता,
दहकते अंगार खाता,
कांच की बोतलें चबाता,
साफ़ नज़र आता।
पर बड़ा मदारी...
सोने की ईंटें निगलता,
देश की माटी बेचकर खाता,
इंसानी हड्डियाँ चबाता,
नज़र नहीं आता,
ऐसा क्यों?
जबकि दोनों ही मदारियों पर,
एक ही कला है,
एक ही मंतर है।
ओह! कदाचित यह...
छोटे-बड़े का अंतर है।
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