कुछ अल्फ़ाज़
इधर के उधर कर दिये
कुछ लफ़्ज़ लहूलुहान हो गए
कुछ हरूफ़ों के सिरे अलग
तो कुछ के धड़ अलग कर दिये
कुछ के ज़बर- ज़ेर इधर गिरे
कुछ उधर गिरे
पेशो-नुकतों का
न अता चला न पता चला
औंधे मुंह न जाने कहाँ कहाँ गिरे,
तमाम सफ़हे को
मैदान ए जंग बना डाला,
घर से दूर दून पहाड़ी की
घाटी के एक हॉस्टल में रहने वाली
बदमाश लड़कियों की मानिंद
आपस में भीड़ गईं थीं.....
मेरी डायरी में लिखीं
दो नज़्में बड़ी पाजी निकलीं!
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