पाजी नज़्में Poem by Ajit Pal Singh Daia

पाजी नज़्में

कुछ अल्फ़ाज़
इधर के उधर कर दिये
कुछ लफ़्ज़ लहूलुहान हो गए
कुछ हरूफ़ों के सिरे अलग
तो कुछ के धड़ अलग कर दिये
कुछ के ज़बर- ज़ेर इधर गिरे
कुछ उधर गिरे
पेशो-नुकतों का
न अता चला न पता चला
औंधे मुंह न जाने कहाँ कहाँ गिरे,
तमाम सफ़हे को
मैदान ए जंग बना डाला,
घर से दूर दून पहाड़ी की
घाटी के एक हॉस्टल में रहने वाली
बदमाश लड़कियों की मानिंद
आपस में भीड़ गईं थीं.....
मेरी डायरी में लिखीं
दो नज़्में बड़ी पाजी निकलीं!

Saturday, June 20, 2015
Topic(s) of this poem: imagination,metaphor
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