A-051. आओ चलो, लौट चलें Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-051. आओ चलो, लौट चलें

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आओ चलो, लौट चलें 1.1.16—5.15 AM
आओ चलो, लौट चलें, जिंदगी के उस छोर
जहाँ माँ का सहारा था
दुनिया से प्यारा था
नहीं कोई छीन सका, माँ का दुलारा था

आओ चलो, लौट चलें, उस लंगोट की ओर
जिसकी बाँहों में बाहें डाले
नहीं मिलता था वक़्त
कब निकल जाता था सूरज
कब हो जाती थी भोर

आओ चलो, लौट चलें, उस मर्दानी की ओर
खुद बिछ गए जिसकी राहों में
न कोई सबब मिला न कोई छोर
दिन भी निकला उसकी नीयत में
रात चुनरिया ओढ़
सब कुछ अपने वश में था
फिर भी बने रहे चित चोर

आओ चलो, लौट चलें, उस साथी की ओर
साथ दिया जीवन भर
न गिला न शिकवा न कोई मरोड़
रंग भरे जीवन में लगाया पूरा जोर
न कोई सानी न हो सकता कोई तोड़
हँस कर जीवन निकला हो कर भाव विभोर

आओ चलो, लौट चलें, उस बगिआ की ओर
हर फूल खिला है, हर रंग का है निचोड़
छोटे बड़ों का मिश्रण, लवण और मीठा घोल
क्या रखा है खुद होने में, अंहम का तुरछा घोल
मिट जाने में मिल जाता है
रिश्ता एक अनमोल।....रिश्ता एक अनमोल

Poet; Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'

A-051. आओ चलो, लौट चलें
Saturday, February 27, 2016
Topic(s) of this poem: motivational
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