A-080. कि तुम कहाँ हो Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-080. कि तुम कहाँ हो

Rating: 5.0

कि तुम कहाँ हो। ……

मेरे इतने करीब आओ कि मुझमें समा जाओ
मैं तुमको ढूंढ़ता रहूँ तुम यह भी बता न पाओ
कि तुम कहाँ हो। ……

ये आखँ मिचौली का खेल जो बचपन में खेला करते थे
धक्कम धक्का करते हुए एक दूसरे को पेला करते थे
कभी तुमने छुप जाना और छुपकर खुद को छुपाना
दूसरों को इशारे करना कि यह बात उसको न बताना
मेरे इतने करीब होकर भी मुझसे ही दूर जाना
फिर हँसते हुए बाहर आना और ये बताना
कि तुम कहाँ हो। ……

वो होली का हुड़दंग वो रंगों का खेल मनाया करते थे
कभी न छूटे एक बार लगने के बाद यही बात मनाया करते थे
चुपके से छुपकर आना और रंग लगाया करते थे
कभी तेरे गालों को छूने के बहाने रंग घुमाया करते थे
तेरा स्पर्श पाने को तुझको गले लगाया करते थे
कभी पिचकारी से मारना कभी हुड़दंग मचाया करते थे
तूने रूठ जाना फिर तुमको मनाया करते थे
जब नहा धोकर रंग छुड़ाकर पिड़किया खाया करते थे
फिर हम तुमको सताते और तुम शर्माया करते थे
तुम भाग जाते थे और फिर आकर बताते थे
कि तुम कहाँ हो। ……

वो सोमवारी का मेला जो मिलकर मनाया करते थे
सावन के महीने में खुद को सजाया करते थे
झूलों में खुद झूलना फिर एक दुसरे को झुलाया करते थे
घने पेड़ों की छाँव तले सोना और सुलाया करते थे
एक दूसरे को देखना और बिना बात मुस्कराया करते थे
किसी और की बातें करना और खिलखिलाया करते थे
लड़ना और झगड़ना फिर खुद ही मनाया करते थे
कभी रूठ कर छुप जाना फिर खुद ही बताया करते थे
कि तुम कहाँ हो। ……


याद है दशहरे के मेले में जब तुम खो गए थे
कितनी भीड़ थी और तुम रो रहे थे
मम्मी मम्मी। …पापा पापा।.... तुम पुकार रहे थे
कहाँ कोई सुनता है इतनी भीड़ में पर तुम गुहार रहे थे
उधर शोर मचा था कुम्भकरण के नींद में सोने का
राम भी तैयार थे और समय हो रहा था रावण के बध के होने का
सूरज ढल रहा था डर था पूरा अँधेरा होने का
अचानक रावण का बध हुआ और बाँध टूट गया था
सारा का सारा हजूम एक ओर हो लिया था
तभी पापा और मम्मी तुमको ढूँढ़ते हुए आये थे
फिर यह बात तुम ही तो बताए थे
कि तुम कहाँ हो। ……

अभी पिछली दिवाली पर पटाखे भी खूब चलाये थे
तुमको याद है तुम बहुत डरे डरे से आये थे
एक हाँथ में फुलझड़ी और एक हाँथ में माचिस जलाकर लाये थे
माचिस जलकर जब हाँथ को लगी तो कितना चिल्लाये थे
और वो मल्हम फिर हम ही तो लगाये थे
तेरे हाथों को अपने हाँथों में लेकर उसको हम सहलाये थे
तब तुम गले लगाकर रोए थे और फिर मुस्कराये थे
फिर डर के मारे घर के अंदर भाग गए और खुद को छुपाये थे
फिर रात अँधेरी में वापस आकर खुद ही तो बताये थे
कि तुम कहाँ हो। ……

अब जिंदगी के मेले में हम बहुत दूर निकल आएं हैं
अपनी अपनी जिंदगी है और अपनी अपनी बाधाएं हैं
पर दिल में कहीं अब भी तुम ठिकाना बनाये बैठे हो
बातें भी मैं करता हूँ और पूछता हूँ कि तुम कैसे हो
पर यह नहीं जानता कि तुम कहाँ हो। ……कि तुम कहाँ हो। ……

Poet; Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'

Thursday, April 7, 2016
Topic(s) of this poem: love and friendship
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 09 April 2016

जीवन की सुखद यादों के बीच वास्तविकता के दंश का चित्रण करती एक अच्छी कविता. धन्यवाद.

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Thank you so much for making me more responsible for future creation!

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