A-123 तूँ तूँ..मैं मैं.. Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-123 तूँ तूँ..मैं मैं..

A-123 तूँ तूँ..मैं मैं..26.8.15—5.29AM

तूँ तूँ मैं मैं का अपना ही स्वाद है
यही तो सारे गामा पादा नीसा है
यही तो ज़िंदगी का अंग विवाद है
वर्ना जिंदगी बदरंग है अवसाद है

सहमति बन जाती जिसके पक्ष में
रुक जाती जिंदगी भी उसी कक्ष में
माचिस भी बनी थी उसी विरोध में
खड़ा था कोई करता हुआ शोध में


उसी अम्बर

अच्छा बताओ झगड़े में क्या बुराई है
तरक्कियां भी तो इसी में बन आयी हैं

विरोध की झलक न होती अगर कहीं
माचिस की तीली भी बनती भला कहीं

सारा जगत आगे बढ़ा इसी विरोध में
कुछ बैठे हैं लगे हैं सिर्फ इसी शोध में


जहाँ तक कोई पहुँच गया अवरोध में
कोई अभी भी खड़ा है उसके विरोध में


विज्ञान का यही तो चमत्कार है
विरोध में ही किया विस्तार है
रुक जाता गर वैज्ञानिक कहीं
कुछ भी न होता संवैधानिक कहीं

झगड़े करने में कोई बुराई नहीं है
आपके झगड़े में सच्चाई नहीं है
झगडे का भी कोई तो कायदा हो
जिंदगी का भी कोई तो वायदा हो

लड़ रहे हो या खुद को साबित कर रहे हो
साबित ही कर रहे हो तो और भी तरीके हैं
झगडे भी हमारे अगर कुछ प्यार सरीके है
तो संसार के सारे सुख उसके आगे फीके हैं

Poet; Amrit Pal Singh Gogia "Pali"

A-123 तूँ तूँ..मैं मैं..
Saturday, January 20, 2018
Topic(s) of this poem: love and life,motivational,relationship
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