A-125 वो रात भला 17.7.15—5.58 AM
वो रात भला कैसे सम्भलती थी
बर्फ की चादर ओढ़ निकलती थी
ऊँची पहाड़िओं पर बर्फ के टीले
चाँदनी में डूबे वो पर्वत अकेले
पर्वतों पर चांदनी जैसे कोई मोर
वो झरनों का शोर करे भाव विभोर
वो नदियों का बहाव जिधर हो झुकाव
उसका उतावलापन जैसे उसका स्वभाव
उसकी मस्ती जैसे रह न जाये कोई चाव
कोई चिंता नहीं जितना भी हो बिखराव
उछल उछल कर चलना, सोलह सिंगार करना
जवानी की सारी हदें जैसे आज ही पार करना
वो बल खाती, मुस्कराती, छटाएँ बिखेरती
हँसती हँसाती छिड़ी अदायें बिखेरती
छेड़ छाड़ करती, ओढ़नी समेटती
कूद फांद करती और छलाँगें मारती
यहाँ गिरी वहां गिरी, फिर भी है भागती
कैसे हर एक पत्ता चांदनी चुराएगा
कैसे वो फिर लोगों को बताएगा
चांदनी रात में हम साथ साथ रहते हैं
सर्दी हो गर्मी हो एक साथ सहते हैं
बारिश का मौसम भी क्या खूब गवारा है
बदन भींगा और चांदनी का अपना ही नज़ारा है
हल्की हल्की ठण्ड की थोड़ी थोड़ी सिहरन में
एक दूसरे का दोनों को कितना सहारा है
हर पहर का मौसम कैसे खुद को दर्शाएगा
कैसे वो सबको यह बात भी बताएगा
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