मोहब्बत 11.1.16-3.00 AM
मोहब्बत का अपना ही दस्तूर है
गैरों में अपनेपन का जो शरूर है
कोई भी नहीं यहाँ पर मज़बूर है
नहीं रह जाता कोई भी गरूर है
सुनना बन जाता पहला धर्म है
हर बात मानना उसका कर्म है
दिन को रात कहे बन जाती रात है
सूखे को बरसात कहे तो बरसात है
न कोई सवाल है न कोई मलाल है
उनके होने का तरीका ही कमाल है
दुश्मनी का भी अपना ही दस्तूर है
अपनों का अपना होना न मंज़ूर है
नहीं सुनना उसकी पहली शर्त है
उसके नीचे चाहे जितनी भी गर्त है
नहीं सुनता है कोई, न कोई सहमत है
शूल चुभता है चुभे, न कोई जहमत है
अपना गरूर अपनों पे बरस जाता है
तो वही अपना बेगाना नज़र आता है
सुन लो, गर सुन सकते हो किसी को भी यार
सुनने मात्र से दुश्मन से हो भी जाता है प्यार
Poet; Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'
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