A-171 वो रात भला Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-171 वो रात भला

Rating: 5.0

A-171 वो रात भला 17.7.15—5.58 AM

वो रात भला कैसे सम्भलती जब तू चादर ओढ़ निकलती
बर्फ़ में ढकी तेरा नीर निगाहें अतरंग होकर निकलती आहें

बर्फों से ढके हुए नरम उरोज कहाँ दिखते अब हमको रोज़
छाती इनकी जो आये कसाव कैसे न बने नदिया का बहाव

इंतज़ार रहा भर रात तबस्सुम कभी तुम मिले कभी हम तुम
कभी घोर अँधेरा कभी चाँदनी कभी तूफान कभी शोर रागिनी

हवा के बुल्ले ठिठुरे बदरीआ बिजली चमके रोश नज़रिआ
बारिश भी जब लगे उमड़िआ किसकी छाती कैसी चुनरिआ

डूबे चाँदनी नर्म उरोज़ तरन्नुम बहके कदमवा लागा कुमकुम
सीने का उभार में कसम कस बहत रहा उरोजों से कोई रस

नदियों के बहाव का झुकावउथलापन ही उसका स्वभाव
उसकी मस्ती उसका ही चाव हो जाता नदिया का बिखराव

उछल उछल कर करे सिंगार जवानी की हदें करनी हों पार
एक पाँव यहाँ दूजा गिरे वहॉं नहीं रखता कोई ऐसे में जहाँ

बल खाकर बिखेरे वो अदाएं हँसती हँसाती छेड़ कर जाएं
बिखेर डाले वो अपनी ओढ़नी जैसे खुश होकर नाचे मोरनी

कूद फांदती व छलाँगें मारती गिरी कि गिरी फिर भी भागती
न रूकती न उसको रोके कोई जागती रही सारी रात न सोई

हर पत्ता कैसे चाँदनी को चुराए कैसे सबको हर बात वो बताए
चाँदनी रातों में एक साथ रहतेसर्दी गर्मी मिल दोनों ही सहते

Poet: Amrit Pal Singh Gogia "Pali"

A-171 वो रात भला
Monday, January 22, 2018
Topic(s) of this poem: love,nature love,nature walks,relationship
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 11 March 2020

खूबसूरती एवम् मांसल सौंदर्य के आकर्षण से सजी रचना.

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