A-255 गुनाहों के बोझ Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-255 गुनाहों के बोझ

A-255 गुनाहों के बोझ 22.3.17- 9.53AM

गुनाहों का बोझ ज़िंदगी बेफ़ायदा हो गयी
गुनाह माफ़ किये ज़िंदगी कायदा हो गयी

जिंदगी के आने से गुनाह दरकिनार हो गए
कुछ रफ़ू चक्कर हुए कुछ मददगार हो गए

गुनाहों की आपसी गुफ़्तगू का ये आलम
कुछ मचलने लगे कुछ अख्तियार हो गए

गुनाहों ने मिल जब आपसी सौदा किया
कुछ मुवक्किल रहे कुछ सरकार हो गए

गुनाहों को गुनाहों से गंध आने लगी जब
कुछ बर्बाद हुए कुछ खिदमतगार हो गए

एक एक गुनाह जो सकून छीन लेता था
जैसे ही छोड़ा वैसे ही सलाहकार हो गए

गुनाहों का बोझ हमारे ही अख़्तियार था
जिम्मेवारी ली और खुद मुख्तियार हो गए

गुनाहों को छोड़ ज़िन्दगी बसर करने लगे
वही तो हैं ‘पाली' जो खुद निस्तार हो गए

Poet; Amrit Pal Singh Gogia ‘Pali'

Wednesday, March 22, 2017
Topic(s) of this poem: motivational
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