A-268 इक शाम 28.4.17- 5.10 AM
इक शाम सुरमई उतर आयी
बजने लगी हर तरफ शहनाई
कुछ दीप करवटें बदलने लगे
हवा ने भी देखो सरगम बजाई
महक उठी फ़िजा मजबूर होकर
किसने आकर कैसे नब्ज़ दबाई
मदहोश हुआ आलम भी बदस्तूर
सिमट गया दामन पकड़ कलाई
वक़्त बेवक़्त सभी चले आते हैं
नहीं कोई आतुर लेने को विदाई
ज़ाम से ज़ाम जब टकराने लगे
कौन मुसव्विर है कौन हरजाई
बड़े महफ़ूज़ बड़े इत्मीनान से
बैठे हैं जैसे उनकी हो रही शगाई
कतरा-कतरा भी बड़ा महफ़ूज़ है
उनकी आपस में इतनी बन आयी
कहाँ छिड़ती हैं बेवाक गुफ़्तगू
मंदिर हो मस्ज़िद हो या तन्हाई
सोच में पड़ा इंसान या मुक़द्दर
न होता मिलन न होती जुदाई
इक शाम सुरमई उतर आयी
बजने लगी हर तरफ शहनाई
Poet: Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'
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