आयो शरण तुम्हारी Aayo Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

आयो शरण तुम्हारी Aayo

आयो शरण तुम्हारी

में आयो शरण में तुम्हारी
गलती मैंने स्वीकारी
तुम तो हो हरी मुरारी
सुणजो विनती हमारी।. आयो शरण तुम्हारी

में हूँ तुम्हारे सहारे
प्रयास सब मेरे हारे
ढूंढ ना पाया कोई किनारा
घूमता रहा में मारा मारा। आयो शरण तुम्हारी

दुनिया को ना समझा ना जाना
दिल को मुश्किल है समझाना
सारी दुनिया का बोज उठाना
फिर दिल को कैसे मनाना। आयो शरण तुम्हारी

माया का में बना गुलाम
दुनिया को ना जाना तमाम
में डूबता गया गेहरी खाई में
चोटदिल की खाई में।आयो शरण तुम्हारी

लुटाके आया होश में
देखूं शकल आइने में
लागु जैसे में रात का उल्लू
समझू अपना किसको, और पकडू पल्लू।आयो शरण तुम्हारी

मैंने पाया कुछ नहीं
और खोया सबकुछ यहीं
अब पछताए हॉत क्या?
सब कुछ था तो पास में अब गम करने से क्या?आयो शरण तुम्हारी

आयो शरण तुम्हारी Aayo
Friday, December 22, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 22 December 2017

अब पछताए हॉत क्या? सब कुछ था तो पास में अब गम करने से क्या? आयो शरण तुम्हारी

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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