अंधरे में.... Andhere Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

अंधरे में.... Andhere

अंधरे में
गुरूवार, १४ मार्च २०१९

जिंदगी द्वंद्व है
पर बंध नहीं
दरवाजे खुले है
बस आह्वाहन को ही स्वीकार ले।

नहीं है अन्धेरा
बस होगा सवेरा
जग जा सपेरा
तूने ढूंढना है बसेरा।

आओ तराशे
हिरे को परखे
स्वाद को चखे
फिर दूसरों को परोसे

आदर देना
और सन्मान पाना
यही रीत है
और उसी में बेहतरी है।

ना हो चकाचोंग
इस से फैलेगा रोग
आपडूब जाओगे गए अँधेरे में
मिले पाओगे बेहोश गलीयारे में।

हसमुख मेहता

अंधरे में.... Andhere
Thursday, March 14, 2019
Topic(s) of this poem: poem
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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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