अपनी हस्ती को ही मिटाओगे Apni Hasti Ko Hi Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

अपनी हस्ती को ही मिटाओगे Apni Hasti Ko Hi

अपनी हस्ती को ही मिटाओगे

उद्दंडी को दंड
उसके लिए ना हो कोई मापदंड!
बस समाज से हो निष्काषित
और उद्गोषित किया जाय 'दोषित'. अपनी हस्ती को ही मिटाओगे

जिसकी कोई सीमा ना हो
जिसके बोलने मे कोई 'तमा ' ना हो
उसे कोई क्या बांधे समा?
सब बोलेंगे खबरदार 'किसीने यदि हाथ थामा' अपनी हस्ती को ही मिटाओगे

नरमाई ही एक विकल्प है
हो सकता है उसका असर ' अल्प ' हो
पर उसकी बोलबाला हमेशा रहेगी
लोग भी यह चीज़ हमेशा याद रखेगी। अपनी हस्ती को ही मिटाओगे

किसी को क्या एतराज हो सकता है?
हमसब 'हमराज' क्यों नहीं बन सकते है?
घमंडी और बदमिजाज के लिए कोई जगह नहीं हो सकती
सद्विचारी और सज्जन के लिए कोई रोक नहो हो सकती। अपनी हस्ती को ही मिटाओगे

नम्रता
ममता के साथ चलती है
अपना दबदबा हमेशा कायम रखती है
दिल को हमेशा आदरशील और मुलायम रखती है। अपनी हस्ती को ही मिटाओगे

आप सब क्या पसंद करोगे?
सब के सलाह सूचन से आगे बढ़ोगे
या फिर अपना ही सिक्का चलाओगे?
ऐसा करने अपनी हस्ती को ही मिटाओगे। अपनी हस्ती को ही मिटाओगे

अपनी हस्ती को ही मिटाओगे Apni Hasti Ko Hi
Friday, October 14, 2016
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 14 October 2016

welcoem aqdas majeed Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 14 October 2016

आप सब क्या पसंद करोगे? सब के सलाह सूचन से आगे बढ़ोगे या फिर अपना ही सिक्का चलाओगे? ऐसा करने अपनी हस्ती को ही मिटाओगे। अपनी हस्ती को ही मिटाओगे

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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