एकटक देखता Ek Tak Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

एकटक देखता Ek Tak

एकटक देखता

एक ही था सहारा मेरा
गगन कहो या आकाश सुनहरा
में देखता और हताश हो जाता
मेरी समझ में कुछ नहीं आता।

जब सब कुछ ठीक था
में मूक रहता था
कभी अभिमान मन में नहीं आने दिया
आकाश की गहराई को मन में उतार दिया।

जब चाँद और तारे समा सकते है
सूरज भी जब रौशनी फैला सकता है
तो में क्यों पंख फैला के उड़ नही सकता?
यह सोच के में अपने आप को रोक नहीं सकता।


मैंने ऊपर से धरती को भी देखा
निचे से भी उसका नजारा देखा
पर आज मेरी स्थिति दयनीय है
उड़ने के लिए बेताब पर निसहाय है।

दोनों पाँव रोगग्रस्त है
में त्राहित और त्रस्त हूँ
अब मेरा अस्तकाल बहुत नजदीक है
में फिर से आसमान को एकटक देखता हूँ।

समय से पहले के सम्हलना जरुरी है
जब जाना तय है तो अमीरी दिखाना भी जरुरी है
दिल के धनी रहो और किसी की परछाई बने रहो
कब आएगा अंत कौन जाने पर शांतचित होके रहो।

Thursday, March 16, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 17 March 2017

welcoem atul yadav Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 16 March 2017

Aasha Sharma Bahut hi sunder Hasmukh Mehta Ji Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 16 March 2017

welcome aaasha sharma Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 16 March 2017

पर आज मेरी स्थिति दयनीय है उड़ने के लिए बेताब पर निसहाय है।

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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