फूलों की महक
बन गयी है रकीब, खुशबु, फूलों के जान की।
चुरा, हवा भी हो जाती, दुश्मन, अरमान की।
फैलते ही सुगंध, मडराने लगते हैं भौंरे
उड़ जाते चूस कर रस, उनके अरमान की।
तितलियाँ भी चिढातीं, अपने रंगो को बिखेर
बिन बात हो जाती दुश्मन, फूलों के शान की।
कभी होता है जी, सुनने को भौरों के गीत
नश्तर चुभो, वे लेने न देतीं मजा, तान की।
चाहत तो होती, लुटा दे, बहारों को सब कुछ
पहले ही तोड़, ख़त्म कर देते कदर, दान की।
माली भी मुआ खिलते ही, गड़ा लेता नजर
जवां होते ही कर लेता है रुख, दुकान की।
एस० डी० तिवारी
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