शहर के बाहर पुल के नीचे कचरे के ढेर के बीचोंबीच
मेरी भाषा का सबसे बूढ़ा कवि चाय में डबलरोटी डुबोकर खाता है
उसने अफ़ज़़ाल से भी पहले शायरी ईजाद की थी
सारे देवता जूँ बनकर उसकी दाढ़ी में रहते हैं
उसके शरीर पर जितने बाल हैं, वे उसकी अनलिखी कविताएँ हैं
वह उँगलियों से हवा में शब्द उकेरता है
इस तरह, हर रात अपने अतीत को लिखता है एक चिट्ठी
जो लिफ़ाफ़ा खोजने से पहले ही खो जाती है
मरने से पहले एक बार
कम से कम एक बार
उस औरत का सही नाम और चेहरा याद करना चाहता है
जो किसी ज़माने में उसकी कविताओं की किताब
अपने तकिए के नीचे दबाकर सोती थी
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