गुमनामी के अंधरे में
आ लोट के आजा
और सूना जा
मेरे मन के मित
मुझे सता रहा मेरा अतीत।
तेरा हर बोल
था तोल के मोल
मुझे याद है वो मधुर शब्द
गन गुना रही हूँ हर लफ्ज।
निकलती नहीं गले से आवाज
साथ में है सुर और साज
पता नहीं क्यों सब साथ छोड़ गये!
अपने को पराये बना गये।
मैंने कहना चाहा बहुत सारा
कहने के सिवा कोई ना था ओर चारा
ना दिल में रखे बनता है
और ना ही कहते बनता है।
देखे हुए एक अरसा बित गया
बेगाना सा बना दिया और चित कर गया
ना अब शक्ल याद है ओर नाही सूरत
में देखती हूँ हर शख्स में तेरी मूरत ।
बदनामी का डर मुझे सता रहा
हर बार तू सपने में आता रहा
में ही अभागन हूँ की ना देख सकती हूँ या मिल सकती हूँ
बस गुमनामी के अंधरे में गुनगुनाती हूँ।
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बदनामी का डर मुझे सता रहा हर बार तू सपने में आता रहा में ही अभागन हूँ की ना देख सकती हूँ या मिल सकती हूँ बस गुमनामी के अंधरे में गुनगुनाती हूँ।