गुमनामी के अंधरे में Gumnaami Ke Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

गुमनामी के अंधरे में Gumnaami Ke

गुमनामी के अंधरे में

आ लोट के आजा
और सूना जा
मेरे मन के मित
मुझे सता रहा मेरा अतीत।

तेरा हर बोल
था तोल के मोल
मुझे याद है वो मधुर शब्द
गन गुना रही हूँ हर लफ्ज।

निकलती नहीं गले से आवाज
साथ में है सुर और साज
पता नहीं क्यों सब साथ छोड़ गये!
अपने को पराये बना गये।

मैंने कहना चाहा बहुत सारा
कहने के सिवा कोई ना था ओर चारा
ना दिल में रखे बनता है
और ना ही कहते बनता है।

देखे हुए एक अरसा बित गया
बेगाना सा बना दिया और चित कर गया
ना अब शक्ल याद है ओर नाही सूरत
में देखती हूँ हर शख्स में तेरी मूरत ।

बदनामी का डर मुझे सता रहा
हर बार तू सपने में आता रहा
में ही अभागन हूँ की ना देख सकती हूँ या मिल सकती हूँ
बस गुमनामी के अंधरे में गुनगुनाती हूँ।

गुमनामी के अंधरे में Gumnaami Ke
Friday, November 4, 2016
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 04 November 2016

बदनामी का डर मुझे सता रहा हर बार तू सपने में आता रहा में ही अभागन हूँ की ना देख सकती हूँ या मिल सकती हूँ बस गुमनामी के अंधरे में गुनगुनाती हूँ।

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Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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