हक़ नहीं... Hak Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

हक़ नहीं... Hak

हक़ नहीं

रविवार, २२ जुलाई २०१८

हक़ नहीं तुझपर मेरा
फिर भी बना रहे तू मेरा
मै घुमु इर्दगिर्द तेरा
समजू तुजे मेरा सहारा।

नहीं समजा तूने मुझको अपना
कभी लगाया ना गले अपना
दूर से ही में तुजे देखती रही
मन ही मन तुजे अपनाती रही।

कैसे गिनु तुझको मेरा राहबर
जब तूने नहीं समजा बराबर
में चातक की तरह देखती रही
मेरी आँखे तुजे ही ढूंढती रही।

जताना चाहती थी हक़ तुझपर
मर भी जाती तेरे केहनेपर
मौक़ा कभी आया ही नहीं
बात में तेरे से, कर ना पायी।

मेरे सपने ऐसे ही चूर हो गए
जब तुम दूसरे के हो गए
हमने तो चाहा था, हमसफ़र बनना
कुछ नहीं बचा अब कैसे कहना।

हसमुखअमथालालमेहता

हक़ नहीं... Hak
Sunday, July 22, 2018
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM

ewelcome miril mirium 1 Manage Like · Reply · 1m

0 0 Reply
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
Close
Error Success