हमें खल रही Hame Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

हमें खल रही Hame

हमें खल रही

हमारा घर किसी राज महल से कम नहीं था
सपनों से सजा हुआ इंद्र महल था
उधर वो बीराजमान होते थे
हम सब की निगाहों में वो सब से ऊपर होते थे।

हम सब सामान्य आदमी की श्रेणी में आते है
कभी कभी ऐसे ख्याल मन को व्यथित कर जाते है
पर उनकी वाणी में कभी ऐसा हम लोगो ने नहीं देखा
हमारे प्रति वो निखालस रहते और हमने गमगीन होते हुए नहीं देखा।

हम कब बड़े हो गए पता ही नहीं चला
वो भी ढलते गए और ये हमने भी नहीं देखा
बस दुनिया थी हमारी निराली और अलग
पूरा सौंदर्यमय वातावरण और स्वर्ग समान जग।

नहीं उठे वो एक दिन हम सबको बुलांने के लिए
वो चल दिए थे अपने निर्धारित लक्ष्य के लिए
हम सब देखते ही रेह गए अँधेरा छाते हुए
बस खूब छटपटाए बिलखते और रोते हुए।

दिन निकल रहे है
हम भी चंचलता से निपट रहे है
घर का वहन उसी अंदाज से चल रहा है
पर कमी हमें खल रही और सता रही है।

हमें खल रही Hame
Friday, March 10, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 11 March 2017

welcoem binit mehta Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 11 March 2017

welcome meenuj balraj Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 10 March 2017

welcome tribhovan panchal Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 10 March 2017

welcome Jobelyn Dela Cruz Cuenta Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 10 March 2017

दिन निकल रहे है हम भी चंचलता से निपट रहे है घर का वहन उसी अंदाज से चल रहा है पर कमी हमें खल रही और सता रही है।

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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