कह मुकरी
कमर से लिपटी थी मैं उसमें,
ऊपर से सिमटी थी मैं उसमें,
सुंदरता पर गयी मैं वारी;
क्या सखि साजन, नहिं सखि साडी।
गले में वो पड़ कर लटका,
देख देख मेरा मन महका,
प्यार से बहुत, गले में डाला;
क्या सखि साजन, नहिं सखि माला।
लटक जाता है चुपचाप,
भेद ना माने दिन या रात,
कहीं गये तो जरूर डाला;
क्या सखि साजन, नहिं सखि ताला।
सदा ही वह, आँखों पे रहता,
दूर भी कर दूँ कुछ ना कहता,
साथ चाहती हूँ मैं बेशक;
क्या सखि साजन, नहिं सखि ऐनक।
- एस० डी० तिवारी
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