काली रात Kali Raat Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

काली रात Kali Raat

काली रात

ना होती काली रात
तो कैसे बनती बात?
ना बिगड़ती बाजी
और ना होती में राजी!

रही तुम काली
पर दिल से मतवाली
ना किया दिल से गीला
जब से मन प्रीत से मिला।

में रहूंगी सदा आभारी
तूने नहीं पोती कालख सारी
कुसूर मेरा भी था शामिल
अब जो रही है यादें धूमिल।

में नाही कोसती सदा
और नाही रखती सदा
मन मेरा दुखी जरूर है
पर वास्तविकता से दूर है।

तेरा रंग है काला
पर दिल मतवाला
लोगो ने चश्मा है डाला
ऊपर से मैंने भी कह डाला।

माफ़ कर देना दिल से मुझे
जो भी शब्द मैंने कहे
दिल में आडम्बर और गीला नहीं था
पर मन पर लगा एक थोड़ा दिली घात था।

काली रात Kali Raat
Thursday, January 12, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 13 January 2017

welcome............. jay soni Unlike · Reply · 1 · Just now

0 0 Reply
Mehta Hasmukh Amathalal 12 January 2017

माफ़ कर देना दिल से मुझे जो भी शब्द मैंने कहे दिल में आडम्बर और गीला नहीं था पर मन पर लगा एक थोड़ा दिली घात था।

0 0 Reply
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
Close
Error Success