मुंबई की यह न थमनेवाली बरसात,
दिलाती है याद 26 July 2005 की वह भयावह रात,
जब इंद्र का कोप इस महानगरी पर बरसा था,
और हर मुंबईवासी अपने घर पहुंचने को तरसा था |
दफ्तरों, सड़कों, प्लेटफार्मों, बस अड्डों सभी जगह फंसे थे लोग,
बेबसी के आलम में मानसिक और शारीरिक कष्ट भोग रहे थे भोग |
सारी मुंबई हो गयी थी जलमग्न,
और घरों में माँएं तथा पत्नियां थीं चिंतामग्न |
एक ही झटके में कुदरत ने मिटा दिया था अमीरी-गरीबी का फर्क,
जुहू हो या कुर्ला सबका हो गया था बेड़ा गर्क |
बिजली हुई गुल और पीने का पानी भी हुआ मुहाल,
मुंबई के लोगों का बहुत बुरा था हाल |
लैंडलाइन ठप्प, मोबाइल ठप्प,
हर समय touch में रहनेवाला मुंबईकर हुआ out-of-touch,
सबके मुख से बरबस ही निकला:
"O God! This is too much! "
प्रकृति के समक्ष आधुनिक विज्ञान हुआ बौना,
मानो किसी शेर के सामने हो कोई मृगछौना |
इस कलयुगी मुंबई में कोई कृष्ण भी सामने नहीं आया,
किसी ने पर्वत उठाकर मुंबई को नहीं बचाया |
और अब तो 26 July 2005 का खौफ़, हर मुंबईवासी के मन में बस गया है'
किसी कैमरे की तस्वीरों की तरह, वो दृश्य सबके मन में हैं अंकित,
कुछ ही घंटों की मूसलाधार वर्षा से मन हो जाता है आशंकित,
कहीं घर पहुंचने की राह में अटक न जाएं, त्रिशंकु की भांति बीच में लटक न जाएं |
समय ही दिलाएगा इस डर से निज़ात,
पर ऐ मेरे प्यारे मुंबईवासियों, अपने गांठ में बांध लो यह बात,
विकास की अंधी दौड़ में मीठी नदी को नाला मत बनाओ,
अपने जीवन से प्लास्टिक की थैलियों को दूर भगाओ |
प्रकृति के इस संदेश को पहचानो,
पहाड़ों, नदियों और पेड़ों के मर्म को जानो |
नदियों को पाटकर और पेड़ों-पहाड़ों को काटकर,
जो बन रहे हैं आलीशान residential complex और shopping mall,
कहीं चुकाना न पड़े इन सबका मूल्य विकराल,
प्रकृति तथा विकास का बनाए रखो संतुलन,
तभी खुशहाल होगा हमारा जनजीवन |
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विकास की अंधी दौड़ में मीठी नदी को नाला मत बनाओ, अपने जीवन से प्लास्टिक की थैलियों को दूर भगाओ | प्रकृति के इस संदेश को पहचानो, पहाड़ों, नदियों और पेड़ों के मर्म को जानो | नदियों को पाटकर और पेड़ों-पहाड़ों को काटकर, जो बन रहे हैं आलीशान residential complex और shopping mall, कहीं चुकाना न पड़े इन सबका मूल्य विकराल, प्रकृति तथा विकास का बनाए रखो संतुलन, तभी खुशहाल होगा हमारा जनजीवन | bahut hi sundar sandesh.......