एक नेता का ज़फरनामा
लगता नहीं जी मेरा, इस उजड़े दयार में
बुलबुल भी खामोश हुआ, बागे बहार में।
उम्मीद थी लग जाएगी, कश्ती कगार पे
तकदीर ने धकेल दिया, इस बार हार में।
उमरे दराज से मांग के, लाये थे पांच वर्ष
दो ऐश में कटे, तीन आला दरबार में।
दिन सत्ता के अब ख़त्म हुए, शाम हो गयी
फैला के पांव सोयेंगे, अपने परिवार में।
कमा लिया अकूत धन, अब कुछ गम नहीं
इतना कुछ बना के बना, जागीरदार मैं।
ना महसूस किया पहले, तंगी के हालात को
दिन ठीक गुजर गए, लोगों के प्यार में।
ऐश में बसर कर लिया, दिन यूँ कट गए
इस बार पटक दिया, जनता की मार ने।
मैं हूँ बदनसीब ज़फर, ये हसरत रह गयी
सातवीं पुश्त का भर लेता, इस बार मैं।
- एस० डी० तिवारी
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सत्ता का खून जिनके मुंह से लग जाये, वह आसानी से हार नहीं पचा सकते. लेकिन यही हमारे सिस्टम की खूबसूरती है कि जनता ऐसे लोगों को अच्छा सबक सिखाती है. ज़फ़र की तर्ज़ पर सत्ता के दलालों पर सुंदर कटाक्ष. धन्यवाद.