निकम्मा
शुक्रवार, २१ सितम्बर २०१८
अब सबकी हाय लग गई
उनकी बातें मन को चुभ गई
मुझ को अकेले में रोना आ गया
मान का मधुर चेहरा सामने आ गया।
"तू निकम्मा और है निठल्ला "
घर से अभी का अभी निकलजा
आटे, दाल के भाव का पता चल जाएगा
जब तुम्हे तैयार खाना नहीं मिलेगा।
हर कोई आया, तो दुश्मन सा लगा
दोस्त के रूप में जालिम सा लगा
सब मिलकर मुझपर हंस रहे थे
मानो मजाक कर, ठहाका लगा रहे थे।
मैं भी रहा नचिंत और बेफिकरा
सुनता नहीं था किसी की जरा
गुस्सा जल्दी आ जाता था
लड़ाई, झगड़ा तो ऐसे ही हो जाता था।
मां परेशान थी और घरवाले भी
सुननी पड़ती थी डाँट सभी की
में अकेला गभरा जाता था
आँख से आसूं निकलते थे और गला भर जाता था।
हसमुख अमथालाल मेहता
welcome Savitriben Vachhani 1 Manage Like · Reply ·
मां परेशान थी और घरवाले भी सुननी पड़ती थी डाँट सभी की में अकेला गभरा जाता था आँख से आसूं निकलते थे और गला भर जाता था। हसमुख अमथालाल मेहता
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem
welcome gunwant singh rahod 1 Manage Like · Reply · 1m