निराशा के सुर.. Nirasha Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

निराशा के सुर.. Nirasha

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निराशा के सुर
मंगलवार, २७ नवम्बर २०१८

आजकल निराशा के सुर छाये
जैसे संकट के घने बादल छा गए
पूरी मानवजात पर जान का ख़तरा
कौन रचा रहा है ये सब पैतरा?

मानव ही मन जात का है दुश्मन
टटोलकर पूछे अपने मन
क्या कसर छोड़ी है हम सबने?
कितने हथकंडे अपनाए है हमने?

नदी का प्रवाहित जल प्रदूषित किया
खाने की सब चीजों में बनावट मिला लिया
यहां तक की दुध को भी बाकि नहीं रखा
जो बच्चो की रही है जीवन रेखा।

हवाओ को भी हमने नहीं छोड़ी
प्रदूषित मात्रा भी बहुत बढ़ी
आज साँस भी लेना दूभर रहा
जीवन को सुरक्षित रखना भी मुश्किल सा रहा।

महासत्ताए चुप नहीं बैठती
तीसरे विश्वयुद्ध का आह्वाहन देती
जल सीमा या हवाई सीमा का जबरदस्ती उल्लंघन का मामला उठाती
थोड़ी हि देर में विश्वयुद्ध की धमकी आ जाती।

हसमुख मेहता

निराशा के सुर.. Nirasha
Tuesday, November 27, 2018
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 27 November 2018

महासत्ताए चुप नहीं बैठती तीसरे विश्वयुद्ध का आह्वाहन देती जल सीमा या हवाई सीमा का जबरदस्ती उल्लंघन का मामला उठाती थोड़ी हि देर में विश्वयुद्ध की धमकी आ जाती। हसमुख मेहता

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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