सामाजिक न्याय... Samajik Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

सामाजिक न्याय... Samajik

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सामाजिक न्याय
गुरूवार, २२ नवम्बर २०१८

आजकल व्यक्ति का स्तर कितना निचे गिर गया है?
जमीं के स्तर से जो जुड़ा हुआ था, वो भी बहक गया है
पहले जो साइकिल पे चलते थे वो आज कारों में घूम रहे है!
जिन का कोई भाव नहीं पूछता था, वो आज आसमान में उड़रहे है।

यही फर्क है हम लोगों में
जिनकी हम सराहना करते थे सब के बीच में
वो ही हमारे दुश्मन बन बैठे है
अपने गरीब दोस्त और गरीबी को भूल चूके है।

यह हमारी शिक्षा की चूक है
आदमी मौक़ा पाते ही, चाल चल देता है
सपनो की दुनिया को असलियत में बदलना चाहता है
रस्ते का जो भी रोड़ा बने, उसको हटाना चाहता है।

यह कितनी शर्म की बात है
मंत्री रह चुकी मोटरमा को बुर्के में आकर सरेंडर करना पड़ता है
शर्मिंदगी झेलनी पड़े ऐसे काम क्यों करते है?
एक बार अच्छा मौका मिला है तो उसे क्यों गंवाना चाहते है?

सामाजिक न्याय की बात तो दूर की रही
अपनॉ को अपनों से भिड़ानी की चाल रही
जात-पात, हिन्दू-मुसलमान और कौमी तनाव हमेशा रहता
अपने ही देश में हम अपनी ही रक्षा नहीं कर सकते।

हसमुख मेहता

सामाजिक न्याय... Samajik
Thursday, November 22, 2018
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 22 November 2018

सामाजिक न्याय की बात तो दूर की रही अपनॉ को अपनों से भिड़ानी की चाल रही जात-पात, हिन्दू-मुसलमान और कौमी तनाव हमेशा रहता अपने ही देश में हम अपनी ही रक्षा नहीं कर सकते। हसमुख मेहता

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Mehta Hasmukh Amathaal

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