शर्म से झुक जाओ Sharm Se Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

शर्म से झुक जाओ Sharm Se

शर्म से झुक जाओ

शर्म से झुक जाओ मुझे देखे हुए
क्या देखा है तुमने मेरा सीना छलनी होते हुए?
कितने लाल खोये है ये धरती को लाल करने?
कितना रक्त पीया है मैंने उसे हरा रखने?

आज मुझे याद कर रहे हो?
अपनी नाकामियां गीना रहे हो?
मेरे ही घर में बच्चो को आना मना है?
सब को मारम्मार कर भगा रहे हो?

मेरे सपूतो को पत्थर मार रहे हो?
सरहद के पार से आतंकवादी बुलाते हो और पनाह देते हो?
पैसे के पुजारी बने हो और आज दुहाई देते हो?
देखते जाओ अब क्या में कर सकती हूँ।

ना ही तुम्हारा कत्ले आम रुकेगा पर आम आदमी यहाँ आके रुकेगा
जब तुम बाकी जगह मकान ले के रेह सकते हो तो वो भी लेगा
वादी को अपना बसेरा बनाएगा और जीवन को महकाएगा
मेरा वादा है हर बच्चा मेरे होगा और अपना ही होगा।

उनकी के नापाक डगर मेरी छाती को क्यों रोंद रहे है?
ये बेशर्म बासिन्दे भूल गए जब सैनिको ने अपना खाना तुम्हे दिया था?
अपनी जान जोखम में डालकर सब को पनाह दी थी
आज तुम उनको और शर्मिन्दा करने जा रहे हो?

देश एक ही रहेगा और हर हिन्दुस्तानी को पुरा हक़ होगा
वो जहाँ चाहेगा वहा रहेगा और पढ़ेगा
उसका ईमान अपना होगा पर वतन एक ही होगा
उसकी धड़कन और जीवन बस मेरे लिए ही होगा।

शर्म से झुक जाओ  Sharm Se
Thursday, August 10, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 10 August 2017

Aasha Sharma Nice ink thanks for sharing Hasmukh Mehta ji Like · Reply · 1 · 40 mins Manage

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Mehta Hasmukh Amathalal 10 August 2017

welcome aasha sharma Like · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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