उसे कहाँ ढूंढूं
पाती मेरी, पहुँच ना पायी।
लौट कर फिर वापस वो आई।
पता नहीं था, कहाँ पे भेजूं,
दिया नहीं वो अपना पता था।
ढूंढी जहाँ में, न पूछो कहाँ मैं,
जहाँ भी जाती, न उसका पता था।
दर दर मुझे बहुत भटकाई
पाती मेरी..
सरि में ढूंढी, मैं सागर में ढूंढी,
कानन किसी व वन में नहीं था।
टीले व पर्वत, बहारों से पूछी
शायद छुपा मेरे, मन में कही था।
भर भर थी उसकी, छवि समायी।
पाती मेरी..
थक हार सोची, चिठ्ठी ही डालूं,
पहले मैं उसके, उत्तर को पा लूँ।
जाऊं फिर मिलने, अपने पिया से,
धर के उसे मैं, गले से लगा लूँ।
धर धर के उसको दूंगी दुहाई।
पाती मेरी..
(C) एस० डी० तिवारी
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Highly sentimental poem with a divine touch. Thanks for sharing it, Sir.