करना क्या था, मैं क्या कर रहा हूं!
रेशे वक्त के पिरोकर, जिंदगी बुन रहा हूं! !
पहले मंजिल तो एक ही थी, दोनों की!
वो कहां जा रहा है, मैं कहां जा रहा हूं! !
बस, देखने भर को आया था मेला!
ऐसे कैसे, मैं इसमें पिसा जा रहा हूं! !
खो गयी जिंदगी, और शायद मैं भी यहां!
रात से डरता हूं, दिन में तो मुस्कुरा रहा हूं! !
चेतना मर गयी, शरीर निष्क्रिय हो गया!
फिर भी, तुझे याद तो कर रहा हूं! !
मेरी इल्तिजा थी, एक चराग़ बनने की!
क्या हुआ मुझको, अब क्यूं जल रहा हूं! !
- विवेक शाश्वत..
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