संघर्षों के बड़े शिखर हैं,
पथ पर मेरे अड़े खड़े हैं।
चलना मुश्किल इन राहों पर,
पैरों में कांटे गड़े पड़े हैं ।
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हैं राम राम का देश यही, तुलसी का है उपदेश यही।
यही भागीरथ परिपाटी है, हां यही अवध की माटी है।।
है धाम पुण्य यह धामो का, श्रीरघुवर के बलिदानों का।
यही सागर की ख्याति है, हां यही अवधि की माटी है।।
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पार्थगाथा
प्रातः हाथी सजे हुए थे,
घोड़े कुछ घबराए थे, ,
मानो रणभूमि मध्य स्वयं यम,
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गांव की झोपड़ी
है नमन तुम्हें यै पवित्र मिट्टी,
मन से लिपटी तन से लिपटी, ,
नमन तुम्हें ये पवित्र मिट्टी।
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संघर्षों के बड़े शिखर हैं,
पथ पर मेरे अड़े खड़े हैं, ,
चलना मुश्किल अब राहों पर,
पैरों में कांटे गड़े पड़े हैं।
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भूख प्यास सब त्याग सदा,
चलता राही राहों पर, ,
चलता है खुद का शव लेकर,
राही अपने कंधों पर।
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एक सुकून मिलता है तुझे देख कर,
मैं गुमसुम हो जाता हूं तुझे चाहकर,
मायूस ही गुजरता है मेरा वो दिन..
बातें ना तुझसे तो भटकता हूं दरबदर।।
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करना क्या था, मैं क्या कर रहा हूं!
रेशे वक्त के पिरोकर, जिंदगी बुन रहा हूं! !
पहले मंजिल तो एक ही थी, दोनों की!
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Jivan (Ak Path)
संघर्षों के बड़े शिखर हैं,
पथ पर मेरे अड़े खड़े हैं।
चलना मुश्किल इन राहों पर,
पैरों में कांटे गड़े पड़े हैं ।
कर्तव्य पथ से जो मुंह फेरे,
हुए कर कहलाते हैं।
मेहंदी के पत्ते पिसते जाते,
तब लाली ले आते हैं।
सहती है वार पाषाण शिला,
तब प्रतिमा में ढलती है।
पर्वत काट निकलते नदियां,
तब मस्तक पर चढ़ती हैं।
सोने सा यदि बनना तुमको,
अग्नि मध्य में तपना होगा।
हीरे की चमक चाहते हो यदि,
धारों पर धार को सहना होगा।
सूरज ढलता चला गया अब,
अंधेरों का साया है।
गया कभी था जो प्रकाश,
लौट नहीं वह आया है।
अपनी चिंगारी के दम पर ही,
अपना इतिहास बनाना होगा।
रणभूमि से वापस अब,
एक विजय पताका लाना होगा।
एक लिंग को शीश नवा,
मन भीतर सुंदर दीप जला।
हृदय को अपने झिंझोर जरा,
भुज डंडों को मरोड़ जरा।
निखर निडर नयनो के भीतर,
कर दे एक चिंगारी स्थिर।
हे जीवन के भिक्षुक राजा,
रणभूमि में अब फिर से छाजा।
आखिरी दफा खामोशी का मलाल है तुझसे, तू गयी, तो खता तेरी नहीं, जानता हूं मैं। मगर भी हैं हजारों सवाल तुझसे।। तजुर्बा होता तो कभी करता ना इश्क तुझसे, ये तो वक्त की है खता, वरना सवाल मिलने का कोई ना था तुझसे।। हूं जिन्दा, तो कुछ सज़ा दे दिया कर, , दूर हो जाऊंगा, मरने के बाद खुदसे।। ये जो करीब मेंरे, कुछ मुस्कुराते चेहरे हैं, हो जाएंगे खामोश, कोई कह दो इनसे।। ~ विवेक शाश्वत शुक्ल 🖊️
आजीवन किया गया संघर्ष मात्र एक छोटी सी गलती करने की वजह से एक ही झटके में विफल हो जाता है। ~विवेक शाश्वत 🖊️
हमारा दायित्व है कि हम सत्यता के मार्ग पर चलें और पृथ्वी के अन्य जीवों को भी सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें । ~विवेक शाश्वत 🖊️
थी आरज़ू मुकम्मल इश्क की हमें, है ग़म की मुंतशिर भी हो ना पाए, , दस्तक दी है, दरवाजे पर किसी ने फिर, इतनी रात में अब बाहर कौन जाए, , गला काटने के बाद मांगी माफी उसने, कमबख़्त हम थे जो माफ़ भी कर नहीं पाए, , इश्क कुर्बानी मांगती है शाश्वत, हम भिखारी भाव भी दे नहीं पाए, , शहर की बेबसी में क्यूं जला रहे खुद को, छांव बहुत है गांवों में, चलो चला जाए, , ~ विवेक शाश्वत✍️
आपने दो शब्द में ही बयां कर दी दुनिया का राज, अच्छा है इसी बहाने आज आईना तो देखा हमने.. टहल रहा था समंदर किनारे में हंसता हुआ, आंखों में आंसू आ गए गम समंदर का देखकर... खुद ही ढूंढना पड़ता है नदियों को रास्ता अपना, पहाड़ों को काटने वहां मजदूर नहीं जाते... समंदर की लहरें थम जाती हैं किनारे पर आकर, प्यासा अक्सर मर जाता है समंदर के करीब जाकर.. रोक नहीं पाओगे तुम हमें वीरान सड़कों पर भी, हमने पत्थर से पानी बनने का सफर तय किया है... यूं तो महफिलों में भी बताते थे अच्छाइयां हमारी, अकेले में मिले तो खामियां गिनाने लगे.. ठहर जा समंदर कुछ वक्त के लिए, मैं कश्ती लेकर फिर से उतरा हूं...