याद आती रही धीरी धीरी... Yaad Aati Rahi Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

याद आती रही धीरी धीरी... Yaad Aati Rahi

याद आती रही धीरी धीरी

दरवाजा अंदर से खुलता है
पर गुहार बाहर से लगती है
बस हम कहते रहे
वो सुनते ही रहे।

हम आहे भरते रहे
वो हंसी के फूल बिखेरते रहे
हमने पुछा: क्यों हंस रहे हो'?
जवाब आया 'पंखी को दाना डाल रहे है'

वो समझता है ' प्यार एक खिलौना है:
हम कहते रहे 'आग से खेलना है '
उसने फिर कहा 'आग तो बुज सकती है'
हमने कहा 'अंदर से वो सुलगती रहती है'

खेर अपना अपना अंदाज़ है
नजरअंदाज भी नहीं करना है
जो है उसका आगाज करना है
मन का भीतर से इलाज करना है।

पता नहीं प्यार कब हो जाता है
कहाँ से आता है और कहा चला जाता है?
मुश्किल में पद जाती है छोटी सी जान
सीधे सादे इंसान भी रहते है बेजान।

हम ठहरे अनाडी
बिन अक्कल के पुजारी
पता नहीं वो रात कैसे गुजारी?
पर उसकी याद आती रही धीरी धीरी।

याद आती रही धीरी धीरी... Yaad Aati Rahi
Monday, August 22, 2016
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 22 August 2016

हम ठहरे अनाडी बिन अक्कल के पुजारी पता नहीं वो रात कैसे गुजारी? पर उसकी याद आती रही धीरी धीरी।

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Mehta Hasmukh Amathalal 22 August 2016

welcome 1Manzil Rajput Unlike · Reply · 1 · Just now 2 hours ago

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Mehta Hasmukh Amathaal

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