शुरुआत है ज़िंदगी की और हारी सी लगती है...
रोशनी भी मुझे याहा अन्धेरे मे लगती है....
मंजिल धुन्ध्ले सागर मे है याहा,
और देखने पर गायब सी लगती है....
क्या पाया उसे पीछे मुड़ कर देखे,
पर देखने पर यादे भिगि सी लगती है.....
पाने की कोशिश बोहत है याहा,
सीखने की साज़िश बोह्त है याहा,
फिर जाने क्यो होस्लो की बुल्न्दी छोटी सी लगती है...
डर नही मुझे रेत के हाथ से फिसलने का,
पर क्यो मुझे हर कोशिश नाकाम सी लगती है....
कुछ कर ना सके जो ज़िंदगी मे,
उनकी ज़िंदगी क्यो मुझे अधूरी सी लगती है....
क्यू मुझे हर कोशिश नाकाम सी लगती है,
जाने क्यो ये ज़िंदगी अधुरी सी लगती है.... Sahil
wah wah...kya khub likha ha...jane kyu ye zindagi mujhe adhuri si lagti...
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Bhaut sunder kavita likhi sahil...... Great liked it
Shukriya dost