जब गुड्डे खिलोने और खुशियोँ के मेले थे...
जब दोस्तोँ सँग शहर की गलियाँ और मस्ती के अठखेले थे...
कभी बारिश की बुंदोँ को कैद मट्ठी हम करते थे...
समँदर किनारे मिट्टी के वो प्यारे से घरोँदे थे...
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जब गुड्डे खिलोने और खुशियोँ के मेले थे...
जब दोस्तोँ सँग शहर की गलियाँ और मस्ती के अठखेले थे...
कभी बारिश की बुंदोँ को कैद मट्ठी हम करते थे...
समँदर किनारे मिट्टी के वो प्यारे से घरोँदे थे...
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बागीचे की वो कुर्सी जो दिखती है तन्हा अभी, ,
रखी है कब से उस सागर किनारे बरगद की गोद में.…
नहीं है लेकिन अकेली वो, , उसके हर अंश संग,
हमारी गुजरी बातों की यादें है उसके जहन में...
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वो भी क्या दिन थे बचपन के...
जब गुड्डे खिलोने और खुशियोँ के मेले थे...
जब दोस्तोँ सँग शहर की गलियाँ और मस्ती के अठखेले थे...
कभी बारिश की बुंदोँ को कैद मट्ठी हम करते थे...
समँदर किनारे मिट्टी के वो प्यारे से घरोँदे थे...
वो भी क्या दिन थे बचपन के...
सब दुखोँ से परे, बस खुशियोँ से भरे..
वो भी क्या दिन थे बचपन के,
छोटे छोटे सपने, , दिन दुनिया को भुले...
वो अठन्नी की चोकलेट और हजारोँ के नखरे थे, ,
जब कटी पतंग को दौड़ लगाते नन्हेँ से परिदेँ थे,
वो नदी किनारे पेडोँ पर जब खुशियोँ के झुले थे, ,
वो कागज के जहाज दोस्तोँ से कभी हमने भी खरिदे थे..
वो भी क्या दिन थे बचपन के, ,
भुले बिसरे आँसु और खुशियोँ से पूरे..
वो भी क्या दिन थे बचपन के, ,
स्कुल के अधुरे notes लेकीन मस्तियोँ मेँ थे पूरे..
जब मन्दिर की ऊँची घंटी और पापा के कंधे थे...
थके हारे तन और माँ की गौद के बिछोने थे...
वो दीदी के संग घर घर और मिट्टी के खिलोने थे...
भाई के संग लड़ना झगड़ना और साईकिल के रोने थे....
वो भी क्या दिन थे बचपन के...
खाना खाने के नखरे, लेकीन माँ के प्यार के भुखे...
वो भी क्या दिन थे बचपन के,
खिलोनोँ के लिये आँसू, , , लेकीन दोस्तोँ संग निखरते थे चेहरेँ...