जब गुड्डे खिलोने और खुशियोँ के मेले थे...
जब दोस्तोँ सँग शहर की गलियाँ और मस्ती के अठखेले थे...
कभी बारिश की बुंदोँ को कैद मट्ठी हम करते थे...
समँदर किनारे मिट्टी के वो प्यारे से घरोँदे थे...
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जब गुड्डे खिलोने और खुशियोँ के मेले थे...
जब दोस्तोँ सँग शहर की गलियाँ और मस्ती के अठखेले थे...
कभी बारिश की बुंदोँ को कैद मट्ठी हम करते थे...
समँदर किनारे मिट्टी के वो प्यारे से घरोँदे थे...
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बागीचे की वो कुर्सी जो दिखती है तन्हा अभी, ,
रखी है कब से उस सागर किनारे बरगद की गोद में.…
नहीं है लेकिन अकेली वो, , उसके हर अंश संग,
हमारी गुजरी बातों की यादें है उसके जहन में...
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