अमन परस्त हूँ मुख़लिस परिंदा रहने दो
भाईचारा मेरा अख़लाक़ ज़िंदा रहने दो
ज़मीन ए हिंद किसी एक की जागीर नहीं
नफ़रत की फेज़ा मुल्क में ना बहने दो
मुल्क में चारों तरफ फैली आहोज़ारी है
वतन के दिल पर सियासत का वार जारी है
माँ का आँचल उसी के खूं से भिगोने वालो
हमारे देश का उँचा तिरंगा रहने दो
दहशत में है अवाम ए हिंद मुश्किल में चमन है
जो बात करे हक़ की क्या ग़द्दार ए वतन है
आवाज़ दे रहा है वतन चींख चींख कर
गंगा ज्म्नी मेरी तहज़ीब ज़िंदा रहने दो
मस्जिद का है एमाम ना मंदिर का पुजारी
भूका है इक़तेदार का वहशी शिकारी
मक़सद में हो ना कामयाब देश द्रोही
हमारे देश की जम्हूरियत ना खोने दो
: नादिर हसनैन
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मैं आपके विचारों का स्वागत व समर्थन करता हूँ. आपने इस देश की सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने की ज़रूरत को इस कविता में बखूबी अभिव्यक्ति दी है. बहुत सुंदर. निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रभावशाली है: गंगा ज्म्नी मेरी तहज़ीब ज़िंदा रहने दो मक़सद में हो ना कामयाब देश द्रोही नफ़रत की फेज़ा मुल्क में ना बहने दो