मंजिल बिछड़े ज़माने से Poem by Priya Guru

मंजिल बिछड़े ज़माने से

Rating: 4.0

ढूंढ रहा था मंजिल बिछड़े ज़माने से
बंदी है ये दिल हासिल नही कारवा आजमाने से
बैठी है कब से तू इंतज़ार में उसके
छोड़ दी वो बस्ती कबसे ना जाने दूंगा इस बार बहाने से

Tuesday, January 12, 2016
Topic(s) of this poem: love and art
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 12 January 2016

आकर्षक व रोचक मुक्तक. आपकी कविता में भावों की अच्छी तस्वीर नज़र आती है.

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