एक लम्हा मुझे हर शाम बुलाता है
कुछ ख़ास ही है बस तेरी बात बढ़ाता है
तेरी आँखों की कभी तोह कभी तेरी बात बताता है
कहना कुछ चाहता नहीं शायद, पर मैं सुनता हूँ घोर से
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एक छोटी सी कविता सागर से बोली कुछ एसे
समंदर की लहरों में बेबाक दौड़ रहा था पगला
कभी गिरा कभी संभला, फिर गिरा फिर संभला
जब संभला तो वो उसको पहचान ना पायी
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आज-आज मैं मैं कल-कल तू तू
ये सब तोह बहाने है
उसकी आँखे, इसका इश्क़
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हमसफ़र को छोड़, मैं अधूरा रह जाऊंगा
चाहत के पल समेट, मैं बादल में बह जाऊंगा
साझा मौत से करना, तो सीख लिया था जबसे
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तु ही बता रे सांवरे!
अब तु ही बता रे
कैसे मिटादूँ वो एहसास न्यारे
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कैसे जिये कैसे मरे तन्हा, तेरी मोहबब्त में
कभी पूछा तो नहीं,
ये फ़िकरे वो वादे और बस सब तेरी यादें, मगर
कभी पूछा तो नहीं,
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अपनी मोहबब्त पे तो मोहबब्त भी मरती है
चाहत से ज्यादा चाह प्यार जुबां से भी करती है
तुम क्या हिसाब लोगे हमारे एहसासों का अब
ये खिदमत ये कुर्बत अब खुद ही नवाज़ी भरती हैं ज़ानिब
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