मेरी ख़ामोशी Poem by Sanjeet Pathak

मेरी ख़ामोशी

जो मेरी ख़ामोशी तुम पढ़ पाती,
तुम दूर कहाँ तब रह पाती...
कितना कुछ तुमसे कहना था,
जो मेरी ख़ामोशी तुम पढ़ पाती,
तुम पढ़ते-पढ़ते थक जाती...
हर ख़ामोशी में तुम ही तुम थी,
कैसे इससे तुम बाहर आती!
जो मेरी ख़ामोशी तुम पढ़ पाती...
बस मेरी हो कर रह जाती...

Sunday, April 24, 2016
Topic(s) of this poem: heartbreaking,love,love and life
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