वफ़ा Poem by Sanjeet Pathak

वफ़ा

सुना था की की वफ़ा मिलती नहीं
आसानी से अब यहाँ.
सोचा, चलो खोज आते हैं,
शायद मिल जाये कहीं मुझे ही.
आखिर मिल गयी मुहब्बत मुझे,
परी-कथा के किताबों में,
सिमटी-सहमी, सकुचाई सी,
अपने सुनहरे अतीत के साथ,
धुल-धूसरित, पिली पड़ चुके पन्नों में,
हम-बिस्तर हुए...
पूछा मैंने भी,
क्या शर्म नहीं तनिक तुझे भी?
सब बाहर तुझको ढूंढ रहे,
और तुम यहाँ छुपी बैठी हो...
तेरे बिना किसी का आपस में बनता नहीं,
भाई ही भाई का हक़ मार देता है,
दोस्त ही दोस्त के सीने में,
खंजर उतार देता है.
बोली मुहब्बत तुम लोगो ने ही
कुछ ऐसा काम किया है,
गिरते रहे खुद ही,
और मुझको बदनाम किया है...
अफ़सोस मुझे भी है की,
मैं तेरे साथ नहीं.
पर जो भी हुआ है,
उसमे हैरत की बात नहीं.
जैसी तुम सब की आदत है,
एक दिन बहुत पछताओगे...
नफ़रत भी साथ छोड़ जायेगा,
और भावविहीन रह जाओगे.

Tuesday, April 26, 2016
Topic(s) of this poem: heartbreak,love
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