परिंदा Poem by Sanjeet Pathak

परिंदा

सभी परिंदे की बाट जोहते,
क्या अपनों से दूर रह पायेगा?
जो उड़ा परिंदा घर से अपने,
फिर लौट के घर को आएगा.
घोसले में जुड़ते तिनके,
पहर बीतते हैं गिन-गिन के.
शायद ये टूटा घर,
उसको अब न भायेगा...
जो उड़ा परिंदा घर से अपने,
फिर लौट के घर को आएगा.
शायद उसको अब भी
अपनों की याद तो आती होगी.
जब शाख पे बैठी कोई बुलबुल
गीत विरह के गाती होगी.
अपनी मिट्टी का क़र्ज़ है उसपर,
कैसे उससे बच पायेगा?
जो उड़ा परिंदा घर से अपने,
फिर लौट के घर को आएगा.

सभी परिंदे की बाट जोहते,
उसका दर्द कोई क्या जाने...
जो उसके घर भी दाना होता,
क्यूँकर वो बेगाना होता?
माना दाना भरपूर यहाँ है,
पर तुम सब से वो दूर यहाँ है.
जब ज़िक्र तुम्हारा होता होगा,
फूट के वो भी रोता होगा.
जो उड़ा परिंदा घर से अपने,
अब लौट कहाँ वो पायेगा...
दाने-दाने को जीता है और,
दाने-दाने को मर जाएगा.
अपनी मिटटी का भी क़र्ज़ परिंदे
पर बाकि रह जाएगा,
जो उड़ा परिंदा घर से अपने,
अब लौट नहीं वो पायेगा!

Tuesday, April 26, 2016
Topic(s) of this poem: bird,love
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