तेरा हाफ़िज़ है मुहाफ़िज़ है मुहाफ़िज़ है ख़ुदा Poem by NADIR HASNAIN

तेरा हाफ़िज़ है मुहाफ़िज़ है मुहाफ़िज़ है ख़ुदा

फ़र्ज़ मुझपे जो था वह मैंने किया अपना अदा
तेरा हाफ़िज़ है मुहाफ़िज़ है मुहाफ़िज़ है ख़ुदा


ये है दस्तूर ज़माने का निभाना था मुझे
मैके वालों को यूँहीं छोड़ कर जाना था तुझे
ख़ुश हमेशा ही रहे आये मुसीबत ना कभी
बिठा पलकों पर रखें तुझको पिया घर के सभी
मेरी बेटी तेरी ख़ातिर यही करता हूँ दुआ
तेरा हाफ़िज़ है मुहाफ़िज़ है मुहाफ़िज़ है ख़ुदा


जवाँ पल कर हुई बेटी तू बाबुल के यहाँ
वही घर है तेरा तुझको अभी जाना है जहाँ
एक तरफ ग़म है जुदाई का तो शादी की ख़ुशी
हो रही दूर नज़र से है मगर दिल में बसी
सूना होजायेगा खुशयों से भरा मेरा ये घर
आ गले से तुझे एक बार लगा लूँ मैं इधर
मुझको तड़पायेगी बचपन की तेरी यादें सदा
तेरा हाफ़िज़ है मुहाफ़िज़................

आला किरदार सख़ी नेक अमीनों की अमीं
तेरी सीरत तेरे आमाल बड़े माहे जबीं
सच्चा ईमान हो आसान है परवाज़ ए फलक
है जो फरमान ए इलाही वह रहे याद सबक़
मुश्किलें दूर करेगी तेरी हर रब की रज़ा
तेरा हाफ़िज़ है मुहाफ़िज़................

By: नादिर हसनैन

Friday, February 10, 2017
Topic(s) of this poem: departure
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