मैं दुआओं का तेरे तलबगार हूँ
तेरी फ़ुर्क़त के ग़म में मैं बेज़ार हूँ
किस्से अपनी सुनाऊँ दिल-ए-दास्ताँ
तुझसा ग़मख़ार मेरा ना है राज़दाँ
थपथपी हाथों की लोरियाँ चाहिए
मैं अकेला हूँ मुझको तू माँ चाहिए
ग़ैब से होती थी तुझको पल में ख़बर
जब भी होता परेशां ये लख़त-ए-जिगर
हर तरफ़ मतलबी ज़रपरस्तों की भीड़
तुझसा बेलौस मोहसिन ना है दस्तगीर
सींचने को चमन बाग़बाँ चाहिए
मैं अकेला हूँ मुझकोतू "माँ " चाहिए
मेरे दिल में कसक बेकली रहगई
कुछ ना बोली तू बस देखती रहगई
वह ख़लिश रात दिन करती बेचैन है
मेरी नज़रों में वह टकटकी नैन है
ऐश-ओ-इशरत ना शाही मकाँ चाहिए
मैं अकेला हूँ मुझकोतू "माँ " चाहिए
✍️: नादिर हसनैन
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माँ को समर्पित एक भावपूर्ण कविता. धन्यवाद.