ना हिन्दू हूँ मैं ना मुस्लिम, सिख हूँ मैं ना ईसाई
दिल विचलित बेचैन है मेरा प्रश्न है कुछ सत्ता से भाई
मोहन, भीम, आज़ाद, भगत हूँ मैं हूँ बिस्मिल और कलाम
मेरे तनमन में है बसता पूरा पूरा हिन्दुस्तान
भूल गए हैं साहब मेरे, चलो याद दिलाते हैं
वह अपनी रोटी सेक रहे, हम अपना फ़र्ज़ निभाते हैं
महगाई की मार से कैसे हम सब जान बचाएंगे
कब तक मेरे गाओं को एक आदर्श गाओं बनाएंगे
क्या वतन के ये उद्द्योग हमारे दीवालया होते जाएंगे
यूँहीं कब तक देश के यूवा नौकरी खोते जाएंगे
जब जॉब नहीं तो घर में बच्चे बीवी माँ क्या खाएगी
फ़ीस कहाँ से आएगा और बेटी क्या पढ़ पाएगी
कब तक मेरे घर का बच्चा अनपढ़ बनता जाएगा
मंदी की इस मार से मेरा देश उभर कब पाएगा
जन धन में वह काले धन का पैसा कब तक आएगा
कब तक हम युवाओं को अब रोज़गार मिलजाएगा
जी एस टी के दायरे में इस तेल को कब तक लाएंगे
हिंदुस्तानी गाओं शहर ये पेरिस कब बनजाएंगे
भ्रस्ट, लुटेरा, देश का दीमक जेल में कब तक जाएगा
साहब ये विकास ज़मीं पर पैदा कब होजाएगा
बेबस और लाचारों के अच्छे दिन कब आएंगे
खेती करने वाले कब तक सूखी रोटी खाएंगे
कब कैसे और कौन ग़रीबी दूर यहाँ करपाएगा
कब तक मेरे देश का बच्चा भूका मरता जाएगा
आखिर कब तक तोड़ जोड़ कर मुददों से भटकाएंगे
बहकावे में कब तक आकर दो भाई टकराएंगे
संत के भेस में रावण देश में कब तक जाल बिछाएंगे
पाखंडी की भक्ति में हम कबतक फंसते जाएंगे
आपने था जो ख़ाब दिखाया अमल में कबतक आएगा
क्या वह मुद्दा आप का वादा जुमला ही रह्जाएगा
अगर नहीं कुछ करसकते तो हम जैसे हैं रहने दो
गंगा जमुना सरस्वती का संगम यूँहीं बहने दो
मेरे देश की संस्किर्ति और भाईचारा कहता है
ग़ुरबत में ही सही मगर तुम अमन सकूँ से रहने दो
रचना: नादिर हसनैन (दरभंगवी)
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem