नशा इश्क़ का चढ़ जब जाए Poem by NADIR HASNAIN

नशा इश्क़ का चढ़ जब जाए

नशा इश्क़ का चढ़ जब जाए
दुनियाँ में फिर कुछ ना भाए
हर कोई महबूब ही दीखता
उसके सिवा कुछ नज़र ना आए
नशा इश्क़ का चढ़ जब जाए

इश्क़ की ख़ातिर जीना मरना
दुनियाँ वालों से क्या डरना
दिलबर की बातों से प्यारी
दूजी कोई बात ना भाए
नशा इश्क़ का चढ़ जब जाए

आशिक़ की ही करता बातें
दिन हो या अँधेरी रातें
साथ बिना महबूब के अपने
एक पल भी वह रह ना पाए
नशा इश्क़ का चढ़ जब जाए

जाम ए मुहब्बत बहोत बुरी है
मार ही डाले ऐसी छुरी है
मिले उसे ना प्यार अगर तो
मजनू जैसी हाल बनाए
नशा इश्क़ का चढ़ जब जाए

घर वालों का प्यार भुला दे
ख़ुद भी रोए और रुला दे
प्यार को पाने के ही ख़ातिर
दुनियाँ वालों से लड़ जाए
नशा इश्क़ का चढ़ जब जाए

By: नादिर हसनैन

Thursday, February 16, 2017
Topic(s) of this poem: love and life
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