सुभग श्रीवृन्दावन राजत, चन्द्र करत उजियार।
निज कुँज आसन विराजहिं, राधा करत गुहार।।
प्रिय चारुशीले, प्रिय चारुशीले, हे सखी ललिते, हे चारुशीले।
गगन सुधाकर सरस विराजित,
श्रीश्रीकृष्णचन्द्र आतप व्यथित,
कलपत विलपत, कलपत विलपत,
श्रीवृषभानुलली रस बोर ए,
प्रिय चारुशीले, प्रिय चारुशीले, हे सखी ललिते....
श्रीश्यामसुन्दर पण^कुँज न आवत,
अलियन क्यों मोहि भरमावत,
यौवन उमँग मोर वृथा,
कहि न जाय हिय व्यथा,
राखौं आपन जीवन क्यूँ,
जब नहीं हेरत श्याम नयन कोर ए,
प्रिय चारुशीले, प्रिय चारुशीले, हे सखी ललिते.....
मनसिज शर सँधान कीन्हों
विरह मोर मति हर लीन्हों,
हित अनहित नहिं कछु चीन्हों,
तंन रखि करौं काह अब,
श्री गिरिधारी 'नवीन' जब नहिं मोर ए,
प्रिय चारुशीले, प्रिय चारुशीले, हे सखी ललिते......
मधुमय वसँत रात,
दुसह दुख कौन नात,
बिनु श्याम श्रृँगार क्या?
उर सुमन हार क्या?
निवसत भयावह दुर्गम वन,
श्याम न सुधि लियो मोर ए,
प्रिय चारुशीले, प्रिय चारुशीले, हे सखी ललिते..
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