रात भर चाँद तारे एक-दूजे को देखते रहे,
न तारों में एक ने कहा, न कुछ चाँद ने कहा।
सागर में दिन -भर हम आज तरँग गिनते रहे,
उन सभी का सागर समाने का बस उमँग रहा।
विहँगों के पँख हमेशा ही फड़फड़ाते रहे गगन,
मन सदा ही अनन्त पहुंचने को तड़पता रहा।
रवि-सुधाकर सदा गतिमान जीवन-गति भर,
लेकिन आवागमन चक्र जँजाल न छूटता रहा।
अब जगत जहां जिसने जब जैसे जहाँ जाया,
जहांपनाह की नजर 'नवीन'सदा जोहता रहा।
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