कभी कभी मुझको लगता है
कि तुम्हारे सीने में
शून्य भर का भी दिल नहीं
हर बार बिन बताए
जाने कहाँ गायब हो जाते हो
गर गायब होना चाहते हो
तो हो जाया करो
मगर कम से कम मुझको
ख़बर तो कर दिया करो
कि जा रहे हो तुम
कईं बेकार आदतों के धनी हो तुम
जाने कितनी ही दफ़ा तम्हें समझाया है मैंने
मगर तुम तो निहायती ढीठ हो
अपनी आदतों से बाज़ ही नहीं आते
तुम उस रोज़ भी नहीं आए
और अब तक नहीं आए
मगर जाने क्यों मैं
किसी दीवाने की तरह
तुम्हारे इन्तजा़र में हूँ
एक अन्तहीन इन्तजा़र में
उम्मीद की डोर को थामे
जो तुमको ढूंढते हुए मुझे मिल गई थी
तुम तो नहीं मिले मगर
हाँ डोर मिल गई मुझको
सोचती हूँ अगर ये डोर जो ना मिली होती मुझको
तो क्या बाकी रह जाता कुछ बच कर
रह जाने के लिहाज़ से
जि़न्दगी में मेरी बेलौस सी
सुना है तुम दूर एक शहर में बस गए हो
एक परिवार है तुम्हारा अब
यकीन नहीं होता मुझको
शायद दिल यकीन करना भी नही चाहता
क्या ख़बर कि तुमसे ही सब सच
जानना चाहता हो
हमारे रिश्ते की शुरुआत से लेकर
उसके अन्त तक की सच्चाई तुमसे ही
चाहता हो सुनना और जानना
कमाल है ये दिल भी
मासूम को कितना बेवकूफ़ बनाओ
और ये बन भी जाता है
बेमौत मरता कईं बार ये दिल
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जीवन की तल्ख सच्चाइयों के बीच बहुत से सवालों के उत्तर तलाशती नज़र आती है यह कविता. धन्यवाद, अभिलाषा जी. हमारे रिश्ते की शुरुआत से लेकर उसके अन्त तक की सच्चाई तुमसे ही / चाहता हो सुनना और जानना.... ये दिल