बेमौत मरता कईं बार ये दिल Poem by abhilasha bhatt

बेमौत मरता कईं बार ये दिल

कभी कभी मुझको लगता है
कि तुम्हारे सीने में
शून्य भर का भी दिल नहीं
हर बार बिन बताए
जाने कहाँ गायब हो जाते हो
गर गायब होना चाहते हो
तो हो जाया करो
मगर कम से कम मुझको
ख़बर तो कर दिया करो
कि जा रहे हो तुम
कईं बेकार आदतों के धनी हो तुम
जाने कितनी ही दफ़ा तम्हें समझाया है मैंने
मगर तुम तो निहायती ढीठ हो
अपनी आदतों से बाज़ ही नहीं आते
तुम उस रोज़ भी नहीं आए
और अब तक नहीं आए
मगर जाने क्यों मैं
किसी दीवाने की तरह
तुम्हारे इन्तजा़र में हूँ
एक अन्तहीन इन्तजा़र में
उम्मीद की डोर को थामे
जो तुमको ढूंढते हुए मुझे मिल गई थी
तुम तो नहीं मिले मगर
हाँ डोर मिल गई मुझको
सोचती हूँ अगर ये डोर जो ना मिली होती मुझको
तो क्या बाकी रह जाता कुछ बच कर
रह जाने के लिहाज़ से
जि़न्दगी में मेरी बेलौस सी
सुना है तुम दूर एक शहर में बस गए हो
एक परिवार है तुम्हारा अब
यकीन नहीं होता मुझको
शायद दिल यकीन करना भी नही चाहता
क्या ख़बर कि तुमसे ही सब सच
जानना चाहता हो
हमारे रिश्ते की शुरुआत से लेकर
उसके अन्त तक की सच्चाई तुमसे ही
चाहता हो सुनना और जानना
कमाल है ये दिल भी
मासूम को कितना बेवकूफ़ बनाओ
और ये बन भी जाता है
बेमौत मरता कईं बार ये दिल

Saturday, April 29, 2017
Topic(s) of this poem: love and life
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 29 April 2017

जीवन की तल्ख सच्चाइयों के बीच बहुत से सवालों के उत्तर तलाशती नज़र आती है यह कविता. धन्यवाद, अभिलाषा जी. हमारे रिश्ते की शुरुआत से लेकर उसके अन्त तक की सच्चाई तुमसे ही / चाहता हो सुनना और जानना.... ये दिल

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