डर Poem by Tribhawan Kaul

डर

रात के अँधेरे से मुझे डर नहीं लगता
उजाले की भीड़ में खुद को तन्हा पाता हूँ
मदद की गुहार लगा रहा वह शख़्स भी तन्हा
इंसां को मौत से मांगते पनाह देखता हूँ।

खुद को ख़ुदा समझ बैठा, इंसान वह भी
खुदी से खुद को कर जुदा बैठा, इंसान वह भी
फिर क्यों सोचे कोई कि ' मैं तन्हा क्यों हूँ? '
'मैं भी तो इंसान हूँ पर जुदा क्यों हूँ? '.

रिश्ते सारे सिमिट गए तकनीकी औज़ारों में
बात अब होती नहीं गलियों में, बाज़ारों में
हरे भरे जंगल पतझड़ की ज़द में आ गए
प्यार रह गया अब यादों की गलियारों में।

करिश्मा कर! राख से उठ हम उड़ने लगें
प्यार की भाषा फिर से हम समझने लगें
आधुनिकता ने हमको हमसे दूर कर दिया
काश! एक बार वह बचपन फिर से आने लगे।
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सर्वाधिकार सुरक्षित /त्रिभवन कौल

डर
Saturday, May 27, 2017
Topic(s) of this poem: fear
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Tribhawan Kaul

Tribhawan Kaul

Srinagar (J & K) India
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